जेएनयू फिल्म कई गंभीर मुद्दों पर प्रकाश डालती हैं, कही अड़चनों के बाद फिल्म को 21 जून को रिलीज किया गया हैं…
JNU Film Review :कहीं गंभीर मुद्दों को बेबाकी के साथ प्रस्तुत करती यह फिल्म भारत की राजधानी में स्थित एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में चल रही राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों पर आपका ध्यान केंद्रित कराती है। हालांकि फिल्म में दिखाया गया विश्वविद्यालय पूरी तरह से काल्पनिक है लेकिन इसका नाम इसे वास्तविकता से जोड़ने का प्रयास करता है फिल्म 2016 में हुए जेएनयू विवाद से संबंध रखती हैं किस तरह से यूनिवर्सिटी का कैंपस एक राजनीतिक मंच बनता है इसे उकेरने का प्रयास किया गया है जिसे फिल्म में विनय शर्मा द्वारा निर्देशित किया गया है।
फिल्म में छत्तीसगढ़ नक्सली हमले में मारे गए जवानों की शहादत पर मिढ़ाई बटना,भारत तेरे टुकड़े होंगे के नारे लगना, यूनिवर्सिटी कैंपस में आतंकी अफजल गुरु की मौत पर शोक मनाना और महिषासुर की पूजा जैसे गंभीर मुद्दे उठाए गए हैं इसके अलावा कैसे यूनिवर्सिटी के अंदर महासचिव की सीट को लेकर दंगल होता है ये भी वर्णित हैं..2 घंटे 30 मिनट के अंदर सारी कड़ियों को बखूबी पिरोया गया है, फिल्म में एक्टर्स की भी लंबी फौज हैं जो आपको मनोरंजित करते हैं।
Film सार – यूनिवर्सिटी के भीतर वामपंथी विचारधारा को बढ़त मिलती देख एक छात्र सौरभ शर्मा इसका पुरजोर तरीके से विरोध करता हैं सौरभ अपने साथियों से सहयोग भी मिलता है सौरभ विरोधियों के लिए एक बड़ा खतरा बन जाता हैं क्योंकि वह(सौरभ शर्मा) छात्र चुनाव लड़ता हैं और जीत भी जाता हैं।वह हर तरीके से वामपंथी विचारधारा को कुचलने का कार्य करता हैं और छात्र हित में काम करता है जिससे युनिवर्सिटी में उसकी लोकप्रियता चरम पर पहुंच जाती हैं। मोटे तौर पर फिल्म की यहीं कहानी हैं।एक खास वर्ग के लिए फिल्म – JNU film यूनिवर्सिटी कैंपस के इर्द गिर्द घूमती नज़र आती हैं फिल्म युवा वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करती है लेकिन समाज के अन्य वर्ग जैसे बुजुर्ग वर्ग,महिला वर्ग और फिल्म देखने के योग्य हुए बाल वर्ग को अपनी ओर नहीं खींच पाती हैं ।फिल्म केवल युवा वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई हो ऐसा लगता हैं इसकी एक वजह इसकी कहानी को कहा जा सकता हैं जो की युवा वर्ग के लिए ही हैं।
किताबों के जलने में यूनिवर्सिटी की छाप – मेकर्स के द्वारा जारी किए गए फिल्म के पोस्टर में दिखाई देता है की कुछ किताबें जल रही है इसमें उन्होंने यह महसूस करवाने की भरपूर कोशिश की हैं की किस तरह से यूनिवर्सिटी इस महासंग्राम में जल रही हैं और कैसे इस संग्राम की आग शिक्षा को ख़ाक कर रही हैं, मेकर्स के द्वारा जारी किया गया यह सबसे नवीनतम पोस्टर था जिसके माध्यम से उन्होंने रिलीज डेट का भी खुलासा किया था। अब फिल्म रिलीज हो चुकी हैं।
पीयूष मिश्रा के गानो का “आरंभ हैं प्रचंड” : फिल्म में जान फूंकने का काम अगर किसी ने किया है तो वो पीयूष मिश्रा की आवाज़ ने किया है “आरंभ हैं प्रचंड हैं“ गाने वाली आवाज ने JNU film में स्थिति के अनुकूल गाने गाए हैं और फिल्म में इन्हें बखूबी से सजाया भी गया हैं।फिल्म में पीयूष मिश्रा के ‘मैं नहीं मानता’ गीत को लोगों ने खूब सराहा , जिसने फिल्म में अपना अलग रंग बिखेरा इस गीत को दानिश राणा द्वारा लिखा गया और विजय वर्मा ने संगीतबद्ध किया है। यह गीत समाज पर किया गया एक प्रकार का व्यंग्य है।खास बात यह हैं कि पीयूष मिश्रा अपने गानों से अपनी जितनी उपस्थिति दर्ज कराते नजर आते हैं उतनी ही वे अपने अभिनय से कराते हैं। पीयूष मिश्रा ने फिल्म में गुरुजी के रूप में अपनी छाप छोड़ी हैं।
सिद्धार्थ बोडके और अतुल पांडे की अदाकारी रही भारी – जहांगीर नेशनल यूनिवर्सिटी फिल्म में वैसे तो सभी कलाकारों की अदाकारी सराहनीय हैं लेकिन लोगो को विशेष तौर पर सिद्धार्थ बोडके और अतुल पांडे के अभिनय ने मोहित किया, फिल्म में सौरभ शर्मा के रोल में सिद्धार्थ बोडके ने तथा किसना कुमार के रोल में अतुल पांडे ने अपने किरदार के साथ जायज़ न्याय किया हैं।लोगों को इनके अभिनय ने विशेष तौर प्रभावित किया।
वहीं दूसरी ओर विजय राज और रवि किशन की जोड़ी ने मूवी में हास्य उत्पन करने का प्रयास किया है जो फिल्म में आए बोरपन को दूर करता हैं। गंभीर विषयों पर बनी फिल्मों में ये प्रयोग पिछले कुछ वर्षों से सफल रहा हैं।
डायलॉग्स और डायरेक्शन ने महत्वपूर्ण भूमिका – 2 घंटे 30 मिनट की अवधि तक वह कारक जो आपको फिल्म से बंधे रखता है वो है फिल्म के उम्दा डायलॉग्स और एक सही निर्देशन।इस झूठ को सच के तराजू में तोलेगा कौन अगर हम भी नहीं बोलो तो साला बोलेगा कौन?, छीन के लेंगे आज़ादी, जेल जाना क्रांतिकारी की निशानी हैं जैसे मजबूत डायलॉग्स गहरा असर डालते हैं।अगर आप पॉलिटिकल ड्रामा फिल्म के चाहक है तो यह आपके लिए बेहतर विकल्प हो सकता हैं।